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कविता

कर्ता का सुख

प्रेमशंकर मिश्र


 

खोदो
रोज खोदो
और खोदो
इन महाकाय पर्वतों को
शायद
चुहिया के आगे कुछ और निकले
खोदो
अपनी उम्‍मीदों को और खोदो

पहला पड़ाव जल है
लोग कहते हैं धरती चल है
लोगों के कहने
और अपने समझने के बीच
कितना बल है
एक ऐसा दलदल है
जहाँ देखते-देखते
पूरी भीड़ के घेरे मे
जीते जागते
धँस गया है
हाथी का
काला-काला भारी भरकम सत्‍य।

इतिहास, संस्‍कृति, वनस्‍पतियाँ
और संभावनाएँ
सब के सब
पिछले दिनों के अखबार की तरह
हर क्षण बासी होती जाती हैं
सोचने और समझने की मशीनें
रोज नई होती जाती हैं
इसलिए
तोड़ो और तोड़ो
कण

फिर उसके कण

फिर उसके कण
''एकोSहम् बहुस्‍यामि'' की
झूठी संधियाँ

तोड़ो और तोड़ो।
खबरों पर खबरें
हर सयुबह
लाती हे नई भाषाएँ
नई परिभाषाएँ
रात भर के जोड़ हुए
सारे संबंध, सारे संबोधन
भोर के ख्वाब के साथ
चाय की भाप के साथ
उड़ जाते हैं
लाख-लाख जिंदगियों का
बेजुबान मुर्दा व्‍याकरण
रेत के मलबे की भाँति
हर ताजा और गीली स्‍थापना पर
बिखर जाता है
कितना भी खोजी
बीनों बटोरो
ईट पत्‍थर
लोहा लक्‍कड़
कुछ हाथ नहीं आता
सब कुछ गल पचकर
रह गए हैं
कण
केवल कण
फिर उसके कण
फिर उसके कण।
दिन भर इन्‍हें जोड़ो
आज जोड़ो कल तोड़ो
कोई शक्‍ल बने अगर फिर उसे फोड़ो

और जब
फिर जम जाए कोई पर्वत
फिर उसे खोदो
रोज खेदो
शायद
अब की बार
चुहिया के आगे
कुछ और निकले।


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